जाने कौन सी तड़प है ये आधी रात में यूं ही दबे पांव आती है एक दर्द सा उठता है सीने में कचोट डालता है पूरे मन को झकझोरे देता है मेरे तन को आंसुओ की लड़ियाँ कब सैलाब बन तकिये को गीला कर देती हैं पता ही नही चलता हैरानी तो इस बात की है कि आखिर ये कौन सा दर्द छुपा रखा है सीने में जिसकी भनक कभी खुद नही हुई जाने कब ये दर्द नासूर बन वक़्त बेवक्त चुभने लगा उस मछली की तरह जो कुछ पल को पानी से जुदा होकर तड़पने लगती है उस फूल की तरह जो खुद तो टूटकर दूसरों के घर को रौनक देती मगर उस पौधे से बिछड़ने का दर्द कोई महसूस नही कर पाता......