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पीरियड्स लीव पर बिहार सरकार का ऐतिहासिक फैलसा जिसे हर किसी ने अनदेखा किया


मासिक धर्म/पीरियड्स भारत में एक बहुत बड़ा समाजिक मुद्दा रहा है। हाल के दिनों में भारत की फूड डिलीवरी कंपनी जोमेटो ने इस दिशा में एक नई शुरुआत की है। कंपनी ने अपनी महिला कर्मचारियों को साल में 10 दिन की छुट्टी पीरियड्स के लिए देने का ऐलान किया है। इस ऐलान के बाद एक बार फ़िर से पीरियड्स लीव को लेकर बहस छिड़ गयी है। 
भारत में मासिक धर्म और उससे जुड़ी स्वास्थ्य समस्याओं की जानकारी अधिकतर महिलाओं को नहीं है। मासिक धर्म पर हमारी धारणा आमतौर पर नकारात्मक और ग़लत है और  समाजिक धारणाओं की वजह से इस पर खुल कर बात नहीं किया जाता है। पितृसत्ता ने सदियों की मेहनत के बाद ‘मासिक-धर्म को गंदी बात’ बताकर महिलाओं के दिमाग में इसके खिलाफ़ बहुत सी ग़लत बातें बिठा दी हैं जिसकी वजह से मासिक धर्म होने को कई लोग ‘बीमारी’ मानते हैं, तो कोई इस वक़्त में औरत को अछूत और अपवित्र कहता है। जिस देश में महज 36% महिलाएं/लड़कियाँ पीरियड्स के दौरान सैनिटरी नैपकिन का इस्तेमाल कर पाती हैं वहाँ पीरियड्स लीव का जिक्र ख़ुद में बहुत बड़ी बात है। यह बात उस वक़्त और भी अहम हो जाती है जब मालूम चलता है कि आज से 30 साल पहले भारत का एक राज्य अपनी महिलाओं को 1992 से ही पीरियड्स लीव दे रहा है। 

जी हाँ, हम बात कर रहे हैं बिहार की। जब कभी भी लालू प्रसाद यादव के शासन काल की बात होती है तब सिर्फ "जंगल राज" का जिक्र होता है। मग़र समाजिक न्याय के मुद्दे पर उनके रुख पर चुप्पी साध ली जाती है। पीरियड्स लीव जैसा प्रोग्रेसिव लेजिस्लेशन पास करने वाला बिहार पहला राज्य है। 
आज से करीब 30 साल पहले बिहार के मुख्यमंत्री लालू प्रसाद यादव ने महिलाओं को पीरियड्स लीव देते हुए महिलाओं के अधिकारों को लेकर एक क्रांतिकारी कदम उठाया था जोकि इतिहास में दर्ज हो चुका है। मगर अफ़सोस इस बात का है कि जिस क्रांतिकारी फैसले को महिलाओं के अधिकार के पायोनिर(pioneer) के रूप में इस्तेमाल करना चाहिए उसके बारे में लोगों को जानकारी तक नहीं है। 2 जनवरी, 1992 में बिहार राज्य ने पीरियड्स लीव ग्रांट करते हुए उस जमाने में महिला सशक्तिकरण एवं जेंडर सेंसिटिव समाज की ओर एक बहुत बड़ा कदम उठाया था। यह फैसला इसलिए भी बहुत जरूरी हो जाता है क्योंकि आज से 30 साल पहले औरतें कामकाजी कर्मचारियों का एक छोटा सा हिस्सा थी और इसे बिहार जैसे अंडरडेवलपड राज्य के द्वारा लागू किया गया था। 
1990 के दौरान बिहार अराजपत्रित(Non-gazetted) कर्मचारियों के महासचिव रमाबाई प्रसाद बताते हैं कि कैसे 1991 में उनलोगों ने बेहतर वेतन, महिलाओं के लिए टॉयलेट और क्रेच सुविधाओं के लिए 32 दिनों का हड़ताल किया था। उसी दौरान कुछ महिलाओं ने इन सुविधाओं के साथ ही मासिक धर्म के दौरान छुट्टी की माँग उठाई। वह बताते हैं कि लालू प्रसाद यादव ने बिना किसी हिचकिचाहट के पीरियड्स लीव की इज़ाज़त दे दी। इतने क्रांतिकारी फैसले के बावजूद इस ख़बर को कुछ खास मीडिया कवरेज नहीं मिला। 

आज वर्कप्लेस में जेंडर सेंसिटिव वातावरण, टॉयलेट, मैटरनिटी लीव, क्रेच सुविधाओं के लिए महिलाएं संघर्ष कर रही वहीं एक राज्य महिलाओं की जरूरतों को ध्यान में रखते हुए उन्हें पीरियड्स लीव तक दे रखा है और उसके बारे में लोगों को जानकारी तक नहीं है। जब 2017 में मुंबई की एक मीडिया कंपनी ने महिला कर्मचारियों को पीरियड्स लीव दिया और 2020 में जोमेटो ने इसकी घोषणा की तब जाकर बिहार चर्चा में आया। 

फेमिनिस्ट ऐंथ्रोपोलॉजिस्ट् एमिली मार्टिन कहती हैं, "महिला की प्रजनन प्रणाली को एक विफलता के रूप में देखा जाता है क्योंकि मेंस्ट्रुअल चक्र के दौरान हर महीने वह एग सेल्स को निकाल रही हैं जबकि पुरुष की प्रजनन प्रणाली स्पर्म पैदा कर रही है।" 

पीरियड्स लीव को लागू करने-न-करने पर बहुत से तर्क दिये जाते हैं। कई बार समानता का भी सवाल उठता है कि महिला और पुरुष बराबर हैं तो ये छुट्टी क्यों? लोगों का कहना है कि अगर महिलाओं को पीरियड्स लीव मिलेगा तो वर्कप्लेस में उनके साथ भेदभाव और भी ज्यादा बढ़ जाएगा। कंपनियों को महिला कर्मचारियों को हायर नहीं करने का एक और बहाना मिल जाएगा और उसके साथ ही पुरुषों को महिलाओं को कमतर जताने का अवसर मिल जाएगा। यह सारे तर्क सही हैं कि किस प्रकार पीरियड्स लीव के लागू होने से महिलाओं पर ख़ुद को साबित करने का दबाब बढ़ जाएगा लेकिन इस तथ्य को कोई नकार नहीं सकता कि महिला और पुरुष का शरीर अलग है, उसे पीरियड्स होते हैं और वो मां बन सकती है जो पुरुष का शरीर नहीं कर सकता। ऐसे में ये तर्क ही बेमानी हो जाता है। ILO के मुताबिक दुनिया का 40% वर्कफोर्स/ लेबरफोर्स महिला है। इसके बावजूद हमारे कार्यस्थल पुरुषों के लिए डिजाइन किये गए हैं। ख़ुद को बराबर साबित करने के चक्कर में पुरुषों की दुनिया में फिट होने के बजाय एक ऐसे वातावरण की मांग करनी होगी जहाँ जेंडर नीड्स को ध्यान में रखते हुए एक इंक्लूसिव स्पेस बनाया जाए। 

ग्लोरिया स्टीनम ने "If Men Could Mensturate" आर्टिकल में पितृसत्ता की परतों का बखूबी पर्दाफाश किया है। उन्होंने एक सवाल किया, अगर महिलाओं की जगह पुरुषों को पीरियड्स हो रहा होता तो यह दुनिया कैसी होती? वह आगे बताती हैं कि अगर पुरुषों को पीरियड्स होते तो मासिक क्रिया एक साराहनीय, घमंड योग्य, मर्दानगी साबित करने का जरिया होता। मेंस्ट्रुएशन एक बेंचमार्क बन जाता महिलाओं के उपर अपनी सुपीरियरिटी दिखाने का लेकिन पितृसत्तात्मक सोच की वजह से इसे बल/मजबूती की बजाय हीन/कमतर माना जाता है। अगर पुरुष को सच में पीरियड्स होता तो यह 'पॉवर' जस्टिफिकेशन शायद हमेशा के लिए चलता रहता। 

पीरियड्स लीव को लागू करने के पक्ष में और इसके खिलाफ़ चाहे कितने भी तर्क दे दिये जाए लेकिन पीरियड्स के दौरान दर्द और तकलीफ़ कई औरतों के लिए एक बहुत बड़ी सच्चाई है जिसको अनदेखा नही किया जा सकता है। 


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